Learn Marma Chikitsa from Dr. Sunil Joshi, Ex-Vice Chancellor of Uttarakhand Ayurvedic University, with over 40 years of experience in Marma Therapy. A globally renowned expert, author of 8+ books, and trainer of 10,000+ students, Dr. Joshi offers authentic knowledge and ongoing support in this powerful, non-pharmacopeial healing method—perfect for today’s holistic wellness seekers.

मर्म चिकित्सा का परिचय एवं ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि

मनुष्य शरीर को धर्म, अर्थ काम और मोक्ष का आधार माना गया है| इस मनुष्य शरीर से समस्त लौकिक एवं पारलौकिक उपलब्धियों/ सिद्धियों को पाया जा सकता है| वहीं ‘शरीरं व्याधि मंदिरम’ भी कहा गया है| क्या रोगी एवं अस्वस्थ शरीर से इन चारों फलों की प्राप्ति संभव है? क्या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति के साधन इस शरीर को स्वस्थ रखने एवं इसको माध्यम बनाकर अनेक सिद्धियों को प्राप्त करने का कोई उपाय है? इस प्रश्न के उत्तर में मर्म विद्या का नाम लिया जा सकता है|

वास्तव में मानव शरीर आरोग्य का मंदिर एवं साहस, शक्ति, उत्साह का समुद्र है, क्योंकि इस मनुष्य शरीर में परमात्मा का वास है| स्कन्द पुराण के अनुसार मनुष्य की नाभि में ब्रह्मा, ह्रदय में श्रीविष्णु एवं चक्रों में श्रीसदाशिव का निवास स्थान है| ब्रह्मा वायुतत्व, रुद्र अग्नितत्व एवं विष्णु सोमतत्व के बोधक है| यह विचारणीय विषय है कि परमात्मा का वास होने पर यह शरीर रोगी कैसे हो सकता है? यदि हम इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करें तो हमे इन समस्त समस्याओं का समाधान इसी शरीर में प्राप्त हो जाता है| योग, प्राणायाम एवं मर्म चिकित्सा के माध्यम से शरीर को स्वस्थ कर आयु और आरोग्यसंवर्धन के संकल्प को पूरा किया जा सकता है| जहाँ योग और प्राणायाम ‘स्वस्थ्यस्वास्थयरक्षणम’ के उद्देश्य के पूर्ति करता है, वहीं मर्म चिकित्सा तुरंत कार्यकारी एवं सद्यः फलदायी होने से रोगों को कुछ ही समय में ठीक कर देती है| यह आश्चर्यजनक, विस्मयकारी चिकित्सा पद्धति बौद्ध काल में बुद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ दक्षिण-पूर्वी एशिया सहित सम्पूर्ण विश्व में एक्यूप्रेशर, एक्यूपंचर आदि अनेक विधाओं के रूप में  विकसित हुई|

ईश्वर स्त्री सत्तात्मक है, अथवा पुरुष सत्तात्मक यह कहना संभव नही है, परन्तु ईश्वर हम सभी से माता-पिता के समान प्रेम करता है| ईश्वर ने वह सभी वस्तुएं हमें प्रदान की है, जो की हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं| ईश्वर ने हमें असीमित क्षमता प्रदान की है, जिससे हम अनेक भौतिक और अध्यात्मिक शक्तियों को प्राप्त करते है| स्व-रोग निवारण क्षमता इन्ही शक्तियों में से एक है, जिसके द्वारा प्रत्येक मनुष्य शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रह सकता है| विज्ञान के द्वारा भौतिक जगत के रहस्यों को ही समझा जा सकता है, जबकि दर्शन के द्वारा भौतिक जगत के वास्तविक रहस्य के साथ साथ उसके अध्यात्मिक पक्ष को समझने में भी सहायता मिलती है| ईश्वर ने अपनी इच्छा की प्रतिपूर्ति के लिए इस संसार की उत्पत्ति की है तथा उसने ही अपनी अपरिमित आकांक्षा के वशीभूत मनुष्य को असीम क्षमताओं से सुसंपन्न कर पैदा किया है| दुःख एवं कष्ट रहित स्वस्थ जीवन इस क्षमता का परिणाम है| सार रूप यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है की ईश्वर का पुत्र होने के कारण मनुष्य समस्त ईश्वरीय गुणों और क्षमताओं से सुसंपन्न है| मनुष्य शरीर प्रक्रति/ ईश्वर द्वारा त्रुटिहीन तकनीक संपन्न मशीन है| जब जीवन के आधारभूत सिद्धांतों की अवहेलना की जाती है, तब यह शरीर अस्वस्थ होता है| मनुष्य शरीर में स्थित ईश्वर- प्रदत्त स्वरोग निवारण-क्षमता हमारी व्यक्तिगत उपलब्धि नही है, वरन मनुष्य शरीर में ईश्वरीय गुणों की उपस्थिति का ही द्योतक है|

अनुमानों पर आधारित विज्ञान के द्वारा किसी भी तथ्य को सम्पूर्णता से जानना संभव नही है| अतः मर्म विज्ञान की समीक्षा वर्तमान वैज्ञानिक मानदंडो के आधार पर कर्म उक्ति संगत और समीचीन नही है| इसके आधार पर मर्म विषयक किसी एक पक्ष का ज्ञान ही प्राप्त हो सकता है| समवेत परिणामों की समग्र समीक्षा इसके माध्यम से संभव नही है| मर्म चिकित्सा एक एसी चिकित्सा पद्धति है, जिसमे अल्प समय में थोड़े से अभ्यास से अनायास उन सभी लाभों को प्राप्त किया जा सकता है, जो किसी भी प्रकार की प्रचलित व्यायाम विधि द्वारा मनुष्य को उपलब्ध होता है| आवश्यकता मर्म विज्ञान एवं मर्म चिकित्सा के प्रचार एवं प्रसार की है, जिससे अधिक से अधिक लोग इस चिकित्सा पद्धति का लाभ उठा सकें| जहाँ अन्य चिकित्सा पद्धतियों का इतिहास कुछ सौ वर्षों से लेकर हजारों वर्ष तक का माना जाता है, वहीँ मर्म चिकित्सा पद्धति को काल खंड में नही बाँधा जा सकता है| मर्म चिकित्सा द्वारा क्रियाशील किया जाने वाला तंत्र (107 मर्म स्थान) इस मनुष्य- शरीर में मनुष्य के विकास क्रम से ही उपलब्ध है| समस्त चिकित्सा पद्धतियाँ मनुष्य द्वारा विकसित की गई है, परन्तु मर्म चिकित्सा प्रकृति/ इश्वर प्रद्त्त्त चिकित्सा पद्धति है| अतः इसके परिणामों की तुलना अन्य चिकित्सा पद्धतियों से नही की जा सकती| अन्य किसी भी पद्धति से अनेक असाध्य रोगों को मर्म चिकित्सा द्वारा आसानी से उपचारित किया जा सकता है| मर्म चिकित्सा ईश्वरीय विज्ञान है, चमत्कार नही| इसके सकारात्मक प्रभावों से किसी को चमत्कृत एवं आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नही, आश्चर्य तो अपने शरीर को न जानने समझने का है, कि हम इनको न जानकर भयावह कष्ट रोग भोग रहे है| इस मानव शरीर में असीम क्षमताएं एवं संभावनाएं है, मर्म चिकित्सा तो स्वस्थ्य विषयक समस्याओं के निवारण का एक छोटा सा उदहारण मात्र है|

ईश्वर ने मनुष्य शरीर में स्वास्थ्य संरक्षण, रोग निवारण एवं अतीन्द्रिय शक्तियों को जाग्रत करने हेतु 107 मर्म स्थानों का सृजन किया है| कई मर्मो की संख्या 1 से 5 तक है| ईश्वर की उदारता का इससे बड़ा उदहारण क्या हो सकता है की उसने 4 तल ह्रदय मर्म, 4 इन्द्र्वस्ति आदि मर्म बनाये है, इसका आवश्यकतानुसार (अंगभंग होने की अवस्था) प्रयोग कर लाभान्वित हुआ जा सकता है| मर्म चिकित्सा विश्व की सबसे सुलभ, सस्ती, सार्वभौमिक, स्वतंत्र और सद्यःफल देने वाली चिकित्सा पद्धति कही जा सकती है| बिना औषधि प्रयोग एवं शल्य कर्म के रोग निवारण की क्षमता इस शरीर में देकर इश्वर ने मानवता पर परम उपकार किया है| मर्म चिकित्सा के सद्यः परिणामों को देखकर ईश्वर की उदारता के प्रति कृतज्ञता का सागर लहराने लगता है|

मनुष्य-शरीर की क्षमताओं का आंकलन करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है, की यह शरीर ईश्वर की सर्वोतम कृति है| समस्त लौकिक और परलौकिक क्षमताएं/सिद्धियाँ इसी के माध्यम से पाई जा सकती है| यह शरीर मोक्ष का द्वार है| नव दुर्गो (नौ किलों) से रक्षित यह नगरी (शरीर) ही स्वर्ग है| यह नव दुर्ग या नौ द्वार हमारी इन्द्रियां है| मर्म चिकित्सा हजारों साल पुरानी वैदिक चिकित्सा पद्धति है| परिभाषा के अनुसार “या क्रियाव्याधिहरणी सा चिकित्सा निगद्यते” अर्थात कोई भी क्रिया जिसके द्वारा रोग की निवृति होती है, वह चिकित्सा कहलाती है| चिकित्सा पद्धतियों की प्राचीनता पर विचार करने से यह स्पष्ट है की औषधियों के गुण-धर्म और कल्पना का ज्ञान होने से पूर्व स्वस्थ रहने के एकमात्र उपाय के रूप में मर्म चिकित्सा का ज्ञान जन सामान्य को ज्ञात था| उस समय स्वस्थ्यसंवर्धन एवं रोगों की चिकित्सा के लिए मर्म चिकित्सा का प्रयोग किया जाता था| अत्यंत प्रभावशाली होने तथा अज्ञानतावश की गई मर्म चिकित्सा के द्यातक प्रभाव होने से इस पद्धति का स्थान आयुर्वेदीय औषधि चिकित्सा ने ले लिया था, यह पद्धति मर्मचिकित्साविदों द्वारा गुप्त विद्या के रूप में परम्परागत रूप से सिखाई जाने लगी| व्यापक प्रचार एवं शिक्षण के आभाव में यह विज्ञान प्रायः लुप्त हो गया| सही स्वरुप एवं विधि से उपयोग करने पर अत्यंत द्यातक होने के कारण मर्म चिकित्सा का ज्ञान हजारों वर्ष तक अप्रकाशित रखा गया| इसको अनेक ऋषियों ने अपने अभ्यास एवं ज्ञानचक्षुओं से जाना जाता लोकहितार्थ उसका उपयोग किया| प्राचीन कल में इस विद्या को गुप्त रखने का क्या उद्देश्य रहा होगा, इसको जानने से पहले यह जानना आवश्यक है की मर्म क्या है? चिकित्सकीय परिभाषा के अनुसार ‘मारयन्तीतिमर्माणि’ अर्थात शरीर के वह विशिष्ट भाग जिन पर आघात करने अर्थात चोट लगने से मृत्यु संभव है, उन्हें मर्म कहा जाता है| इसका सीधा अर्थ यह है की शरीर का यह भाग अत्यंत महत्वपूर्ण है, तथा जीवनदायनी ऊर्जा से युक्त है| इन पर होने वाला आघात मृत्यु का कारण हो सकता है| इन स्थानों पर प्राणों का विशेष रूप से वास होता है| अतः इन स्थानों की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए|

अभी तक मर्मविज्ञान के विषय में अधिक जानकारी न होने के कारण इस महत्वपूर्ण विद्या का प्रचार-प्रसार नही हो पाया| इसके उपयोग के विषय में अधिकांश आयुर्वेद विशेषज्ञ अनभिज्ञ रहे है| मर्मो के वर्णन को मात्र शरीर रचना का विषय मान लिया गया| मैं सुश्रुत संहिता- षष्टम अध्याय ‘प्रत्येक मर्म निर्देश’ नामक अध्याय में डॉ0 भास्कर गोविन्द घाणेकर के विमर्श का कुछ अंश उदधृत करना चाहूँगा- डॉ0 घाणेकर के अनुसार-

“मर्म शब्द की निरुक्ति उपर्युक्त प्रकार से ग्रंथो में वर्णित है, और व्यव्हार में भी मर्म के ऊपर आघात या प्रहार होने से (ह्रदय के सम्बन्ध से मानसिक अघात होने से भी) म्रत्यु हो जाती है, एसी काल्पना है| इन स्थानों पर अघात होने से जीव का नाश होता है, इसलिए ये जीव स्थान Vital parts भी कहलाते है| जीवस्थान एवं Vital parts का योगार्थ एक ही है| मर्म वितरण आयुर्वेदिक शरीर का विशेष भाग है| इसमें संदेह नही, परन्तु इसकी विशेषताओं का हमें ठीक आंकलन नही हो रहा है, की मर्मों के निमित्त हमे अनेक अंगों और स्थानों का जिनका विवरण पिछले अध्यायों में नही हुआ है, बहुत उपयोगी विवरण मिलता है|”

अनुभव से यह सिद्ध हुआ है की यदि इन स्थानों पर समुचित शास्त्रोक्त चिकित्सा क्रियाविधि का उपयोग किया जाय तो शरीर को निरोगी एवं चिरायु बनाया जा सकता है| साथ ही विभिन्न सुखसाध्य, कृच्छ्रसाध्य एवं असाध्य रोगों में मुक्ति पाई जा सकती है| मर्मविद्या- मर्मज्ञ विभिन्न ऋषि मुनियों ने सर्व-सामान्य के लिए सुलभ एवं उपयोगी योग- प्राणायाम से प्रथक उन लोगों के लिए मर्म विद्या/ मर्म चिकित्सा का अन्वेषण किया, जो निरंतर लोक कल्याण, लोकहित, लोकानंद उपलब्ध कराने वाले समाधि और ब्रह्मज्ञान के आकांक्षी है| निरंतर सांसारिक हितचिंतन में संलग्न साधको के लिए नियमित रूप से स्थूल यौगिक आसन व्यायामादी/ प्राणायाम द्वारा शरीर को स्वस्थ रखने का उपाय करना संभव नही है| उनको मर्म विद्या/चिकित्सा द्वारा सद्यःफल प्राप्त होता है, जो शारीरिक आरोग्य, मानसिक शांति एवं अध्यात्मिक उन्नति एवं परम ब्रह्म से तदाकार होने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है| जहाँ एक और मर्म विद्या के द्वारा लौकिक/परलौकिक सुखों की प्राप्ति संभव है, वहीँ इस विद्या के दुरूपयोग से यह घातक भी हो सकती है| अतः मर्म चिकित्साविद के अतिरिक्त यह विद्या राजाओं एवं योद्धाओं को ही सिखाई जाती थी| वर्तमान सन्दर्भ में यह समय वेद विद्या-प्रकाशन का कल है| हजारों वर्षों से अप्रकाशित वैदिक ज्ञान को आज के सन्दर्भ में लोक कल्याण हेतु प्रस्तुत करने की आवश्यकता है|